गुरु गुलामी!!!!५० लाख साधु? बापरे!! अधधध!!!
*गुलाम मानसिकताको लोग कोलोनियल माइन्ड कहेते है। अंग्रेज २२० वर्ष भारत पर राज करके गये। इसलिए प्रजाकी मानसिकतामें अंग्रेजी और अंग्रेजोकी प्रति गुलामी खूनमें आ गइ है। पर गुरुगुलामी तो प्रजाके अचेतन मनमें समा गइ है और संतानोको वारसेमें जीन्समें भी देते जाते है।
किसीको कोइना कोइ गुरुके बगैर जैसे चलता ही नहीं। ईन्दिरा गांधी हो या जवाहरलाल के गांधीजी या किसी भी नेता, सब गुरुके पास आशीर्वाद और सलाह लेनेके लिए दौड जाते है। दूसरे देशके नेता साधुओकी सलाह लेने नहीं जाते, इसलिए वो भारत से बलवान है, और आगे है। साधुओंकी सलाह लेके देशका भला कहां हुआ? देश तो हजार साल तक गुलाम ही रहा है, गरीब और कायर ही रहा है। भीखारीओंकी सलाह से कभी देश बलवान हो सकता है भला? जो मुर्ख होते है वो देशको चलाने के लिए साधू ओंकी सलाह लेने दौड जाते है। हा कोइ अपवाद हो शकटा है, जैसे की चाणक्य। पर एसे अपवाद कितने? चंद्रगुप्तका साम्राज्य बलवान था क्योंकी चाणक्यने जासूसी संस्थाका महत्व समजाया था। राज्यके जासूस सीधे चाणक्यके पास माहिती देने चले जाते थे| बाग्लादेशका १९७१में अस्तित्व हुआ उस युद्ध को आधा तो भारतकी ‘रो’ नामक जासूसी संस्था के कारण ही जीते थे। इस ‘रो’ को छोटा करके लगभग निष्क्रिय बना देने का महापाप श्रेष्ठ जाने जाते मोरारजी देसाइने किया था। कच्छ जितना छोटा इजराएल देश को कोइ नहीं दबा सकता इसका कारण उनकी जासूसी संस्था ‘मोसाद’ है।
सबको आशीर्वादसे काम चलाना है। कोइ महेनत नहीं करनी, कर्मका नियम है की कर्मका फल मिलता ही है, कर्म भगवानको भी नहीं छोडते तो फिर आशीर्वादकी क्या जरूरत? अगर प्रार्थना किये खराब कर्मो या की गइ भूलमेंसे मुक्तिके लिए करते हो तो फिर कर्म के नियम का क्या अर्थ ? बाकी प्रार्थना करते ही रहो कोइ फर्क नहीं पडेगा। भगवान महावीर इस कर्मके नियम को जानते थे, इसलिए जिंदगीमें कभी प्रार्थना नहीं की थी। भारतमें लगभग ५० लाख साधु है एसा गुजराती दिव्यभास्करमें किसी आर्टीकलमें पढा था। जो ये सच्चा हो तो?
ये ५० लाख साधु कुछ काम नहीं करते|कीसी चीजका उत्पादन नहीं करते, ना ही कोइ सेवा बेचते है। मुफ्तमें प्रजाके पैसे से मजा करते है। एक साधू के पीछे कमसे कम हररोजके ५० रू. खर्च होता है ऐसा मान ले , क्यूंकी ये साधु भूखे नहीं रहेते है। पैसे कौन देता होगा? ५० रू. से ज्यादा खर्च करते होगें क्योंकी बीडी और गांजेका खर्च कौन देता होगा? उनके खानेका, चायका, दूधका, भगवे वस्त्रका, फलाहार इन सबके लिए वो लोग तो कमाने जाते नहिं है। तो इनका रोजका सादा हिसाब भी गिने तो एक साधुके पीछे ५० रू. के हिसाब से गिने तो ५० लाख साधुओंके पीछे हररोजके २५०० लाख रपिया हुआ। और सालके ३६५ दिनके ९१२५ करोड रूपिया खर्च होते होंगे। ये तमामपैसे प्रजाकी जेबसे जाते है। ये हिसाब तो सीधे सादे फेमस नहीं है एसे साधुओंका खरच जो आम जनताके सिर पे आता खर्च है।जानेमाने गुरुओं तो जनताके करोडो रूपिया एंठते होगे, कुछ भी किये बिना। भारतकी इकोनोमीके लिए बोज है, ये साधू संस्था। जो देशके विकासमें कोइ काममें नहीं आती। बिना साधुओंके देशका विकास अच्छा होगा, इकोनोमी सुधरेगी। जनता के महेनतके पैसे बचेगें.
जिसको काम करना नहीं है वो ही भगवे वस्त्र पहेनके साधु बन जाते है। उनका काम हो गया उनको जिंदा रखनेके जिम्मेदारी जनताकी। बहोत सारे लोग कहेते है की दो चार साधुके कारण सारी साधु संस्थाको बदनाम नहीं करना चाहिए। मेरा कहेना है की दो चार अच्छे साधुओंके कारन पूरी निष्क्रिय साधुसंस्था का बोज क्युं उठाना? स्वामी विवेकानंद जैसे सच्चे साधु और गुरु कितने? और जो सच्चे है वो तो संसारमें रहेके भी भक्ति कर शकते है। पूरा ॠषि जगत शादीशुदा थे। कितने को तो दो पत्नीआं भी थी| कोइ कोइका मानना है की ये साधुओंको स्त्रीआं विचलित करती है। पर विचलित हो जाए एसी साधुता किस कामकी? या फिर सत्रीओंकी भावनाओंको बहेलाके साधू खुदकी दबाइ हुइ छूपि वासनाको संतोषते तो नही है ना?
एक ही रामकथा को बारबार कहे के करोडो ऋपिया जमा करनेवाले बापुओंकी कमी नहीं है ये देशमें। ज्यादा मंदिरो बनाके जनताके करोडो रुपिया पथ्थरोमें डालते है। एक सोमपुरा फेमिलीका भला करने के लिए बाकी जनताकी जेब से पैसे खाली होते है। ये सोमपुरा फेमिली मंदिर नहीं बनायेंगे तो दूसरा काम ढूंढ लेंगे, भूखे नहीं रहेंगे। उनकी कारीगरी मंदिरो के बजाय सोसायटी या एपार्टमेन्ट बनानेमें उपयोग करेंगें। मजदूरोंको काम मिलता रहेगा।
कुंभके मेलेमें गंगा नदीमें स्नान करते वक्त लाखों साधुओंकी फोटो खुशी खुशी छापते है। और शिवरात्रीके वक्त गांजा पीते साधुओंके फोटो भी अखबारवाले छापते है सौर पुण्य कमातेहै। लोग भी खुश होते है, कैसा महान देश है हमारा। दोचार बुद्धु गोरे आ जाये तो लोग ज्यादा खुश हो जाते है, कैसी महान संस्कृति!!! साक्षर लोग फटाफट लिखते है की एसी महान साधु संस्था है हमारी की गोरे भी मानते है। एक साक्षरने तो लीख दिया की पश्चिमके लोग अपनी संजीवनी विद्यामें विश्वास रखते है। कोमामें चले जाते है वो वापस होशमें आते है पर मरा हुआ जिवित हो सकते है? कोमामें गया होशमें आता होगा और मानते होगेंकी संजीवनीके प्रयोगसे जिन्दा हुए।
समजनेकी बात है जहां चोरी ज्यादा होती है वहां पुलिसकी जरुरत ज्यादा रहेती है। एसा जहां अधर्म ज्यादा वहां धर्मकी और साधुओं,गुरुओंकी जरूरत ज्यादा। चोर अपना धंधा चालु रखनेके लिए पुलिसको भ्रष्टाचारी बनाते है,एसेही अधर्म चालु रखनेके लिए साधु, गुरुको भ्रष्टाचारी बनाना पडता है या बनना पडता है। चोर ही पुलिस बन जाए तो किसीको पकडनेकी चिंता ही नहीं। अधर्मी और कामचोर साधु,गुरु बन जाए तो सच्चे गुरु खो जाते है। अभिनयके निष्णात गुरु सच्चे गुरु होनेकी एक्टींग करेंगे, प्रवचन देगें, ह्रदयद्रावक कथाए कहेंगे और भोली जनताके करोडो रूपिया आश्रमो बनानेमें लगायेंगे| बादमें उनके लिए झगडे होंगें, खून भी हो जाते है। ये साधुसंस्था देशके लिए नुकशानकारक है। गुरुगुलामी मानस प्रजाके लिए ज्यादा नुकशानकारक है।*
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